जबकि ‘0’ की खोज आर्यभट्ट ने कलयुग में की थी?
कुछ लोग हिंदू धर्म व "रामायण" "महाभारत" "गीता" को काल्पनिक दिखाने के लिए यह प्रश्न कई बार उठाते है कि जब आर्यभट ने
लगभग 5 वीं शताब्दी मे ‘0’ (ज़ीरो) की खोज की तो आर्यभट की खोज से लाखों वर्ष पहले रामायण मे रावण के 10 सिर की और महाभारत मे कौरवो की 100 की संख्या की गिनीती कैसे की गई। जबकि उस समय लोग (ज़ीरो ) को जानते ही नही थे,
वे कहते हैं कि जब 05 वीं शताब्दी में आर्यभट्ट ने शून्य का आविष्कार
भारत मे संस्कृत ज्ञात सबसे प्राचीन भाषा है।संस्कृत में गणना के मूल शब्द - शुन्यम, एकः एका एकम,द्वौ दवे, त्रयः त्रीणि, चत्वारः, पंच, षष्ठ, सप्त, अष्ट, नव, दशम, शत, ये सब प्रारम्भ से रहे हैं
(ऋग्वेद,दशम मण्डल, नब्बेवा सूक्त पुरुष सूक्त, पहला मंत्र)
सहस्त्रशीर्षा पुरुष:सहस्राक्षःसहस्रपात् स भूमि सर्वतः स्पृत्वाऽत्यतिष्ठछ्शाङ्गुलम्
जो सहस्रों सिरवाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहस्रों चरणवाले विराट पुरुष हैं, वे सारे ब्रह्मांड को आवृत करके भी दस अंगुल शेष रहते हैं ||१||
ईश उपनिषद यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का उपनिषद है, जो उपनिषदों में प्रथम स्थान रखता है। इसमें दूसरे श्लोक में लिखा है
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत् समाः। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे || 2 ||
यहाँ इस जगत् में सौ वर्ष तक कर्म करते हुए जीने की इच्छा करनी चाहिए
अथर्ववेद में -
“पश्येम शरदः शतम्” हम सौ शरदों तक देखें, यानी सौ वर्षों तक हमारे आंखों की ज्योति स्पष्ट बनी रहे (अथर्ववेद, काण्ड १९, सूक्त ६७)
आर्यभट्ट ने “आर्यभटीय”(सङ्ख्यास्थाननिरूपणम्) में कहा है
एकं च दश च शतं च सहस्रं तु अयुतनियुते तथा प्रयुतम् कोट्यर्बुदं च वृन्दं स्थानात्स्थानं दशगुणं स्यात् ॥ २ ॥
अर्थात् “एक, दश, शत, सहस्र, अयुत, नियुत, प्रयुत, कोटि, अर्बुद तथा बृन्द में प्रत्येक पिछले स्थान वाले से अगले स्थान वाला दस गुना है।
इसका अर्थ है कि भारत मे गणना के अंक “शब्दों” में थे।
बाद में अलग अलग समय पर इन शब्दों के लिए प्रतीकों से “गणना” किया गया।
तो जब “शब्द” थे, तो रावण के दस सिर व कौरव के सौ पुत्र निश्चित रूप से गिने गए होंगे और रामायण महाभारत आर्य भट्ट से बहुत पहले लिखा गया होगा। हाँ उस समय शून्य “अंक” के रूप में नहीं रहा होगा।
शून्य का मतलब ‘ब्रह्म' होता है। आर्य भट्ट ने शून्य का “आविष्कार नहीं”, शून्य पर आधारित “दाशमिक प्रणाली” दी थी
आर्य भट्ट के शून्य की बात, भारतीय शून्य के का “व्यावहारिक प्रयोग” से है
मतलब एक शक्ति जो दाहिनी ओर आ जाये तो वो शक्ति कई गुनी हो जाए, बाई ओर चली जाय तो निशक्त की स्थिति इसी ब्रह्म रूप को “गोलाकार शून्य” प्रतीक में लाया गया और इस प्रकार भारतीय आर्यभट्ट नामक ब्राह्मण ने विश्व में व्याप्त शून्य के विभिन्न गणना के प्रतीकों को समाप्त कर “गणितीय” रूप दिया ।
उक्त से स्पष्ट हो जाता है कि जो विवाद हमारे धर्म ग्रंथों को लेकर उछाला जाता है।
वह राजनीतिक द्वेष व सनातन धर्म के प्रति दूषित विचारों से ग्रसित है - ऐसे लोगों के विषय मे भर्तृहरि' (महान नीतिकार एवं कवि) ने लिख है कि इन्हें ब्रह्मा भी नहीं समझा सकते।
सौजन्य से - erblogs.navbharattimes.indiatimes.com
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