Sunday, October 9, 2022

जानिए हिंदू धर्म में “संख्या” का महत्व एवं उनसे जुड़ी धार्मिक जानकारीहिंदू धर्म में 1 से लेकर 12 की संख्या प्रमुख देवी-देवताओं से लेकर, धर्म शास्त्र समस्त जानकारी हर संख्या में समाहित है।


एक ब्रह्म - "एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति"

दो (2) का महत्व :

दो पक्ष- शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष
दो पूजा- वैदिकी और तांत्रिकी (पुराणोक्त)
दो अयन- उत्तरायन और दक्षिणायन

तीन (3) का महत्व :

त्रिदेव- ब्रह्मा,विष्णु, महेश
तीन देवियां- महासरस्वती,महा लक्ष्मी, महागौरी
तीन लोक- पृथ्वी, आकाश, पाताल 
तीन गुण- सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण।
तीन स्तर- प्रारंभ, मध्य, अंत।
तीन रचनाए- देव, दानव, मानव।
तीन अवस्था- जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति
तीन काल- भूत, भविष्य, वर्तमान।
तीन नाड़ी- इडा, पिंगला, सुषुम्ना।
तीन शक्ति- इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति

चार (4) का महत्व :

चार धाम- बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम्, द्वारका
चार मुनि- सनक, सनातन, सनंद, सनत्कुमार
चार वर्ण- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र
चार निति- साम, दाम, दंड, भेद
चार वेद- सामवेद, ॠग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।
चार युग- सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग, कलयुग।
चार प्राणी- जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर।
चार जीव- अण्डज, पिंडज, स्वेदज, उद्भिज।
चार वाणी- ओम्कार्, अकार्, उकार, मकार् या - (1) वैखारी वाणी (2) मध्यमा वाणी (3) पश्यंती वाणी और (4) परा वाणी।
चार आश्रम- ब्रह्मचर्य, ग्रहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास।
चार भोज्य- भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चोष्य।
चार पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।
चार वाद्य- तत्, सुषिर, अवनद्व, घन।

पांच (5) का महत्व:

पांच तत्व- पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल, वायु।
पंचदेव - गणेश, दुर्गा, विष्णु, शंकर, सुर्य।
पांच ज्ञानेन्द्रियां- आंख, नाक, कान, जीभ, त्वचा।
पांच कर्म- रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि।
पांच उंगलियां- अगूठा, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा

पाँच वटवृक्ष : सिद्धवट, अक्षयवट , बोधिवट , वंशीवट , साक्षीवट।
पाँच कन्या : अहिल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती, द्रौपदी।

पांच पूजा उपचार- गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य।
पांच अमृत- दूध, दही, घी, शहद, शक्कर।

पांच प्रेत- भूत, पिशाच, वैताल, कुष्मांड, ब्रह्मराक्षस।
पांच वायु- प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान।
छः (6) का महत्व: 

छ: ॠतु- शीत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर।
छ: ज्ञान के अंग- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष।
छ: कर्म- देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान।

छ: दोष- काम, क्रोध, मद (घमंड), लोभ (लालच), मोह, आलस्य।
छः रस - मधुर (मीठा), लवण (नमकीन), अम्ल (खट्टा), कटु (कड़वा), तिक्त (तीखा) और कषाय (कसैला)।

सात (7) का महत्व:

सात छंद- गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती।
सात स्वर- सा, रे, ग, म, प, ध, नि।

सात सुर- षडज्, ॠषभ्, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद
सात चक्र- सहस्त्रार, आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मूलाधार

सात वार- रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि
सात मिट्टी- गौशाला, घुड़साल, हाथीसाल, राजद्वार, बाम्बी की मिट्टी, नदी संगम, तालाब

सात महाद्वीप- जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप, शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप
क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप

सात ॠषि- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, भारद्वाज।

सात धातु (शारीरिक)- रस,रक्‍त, मांस, मेद, अस्थि, मज्‍जा, शुक्र।

सात पाताल- अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल।
सात पुरी- मथुरा, हरिद्वार, काशी, अयोध्या, उज्जैन, द्वारका, काञ्ची

आठ का महत्व

आठ प्रहर - दिन के चार प्रहर- पूर्वान्ह, मध्यान्ह, अपरान्ह और सायंकाल
रात चार प्रहर - प्रदोष, निशिथ, त्रियामा एवं उषा 

आठ मातृका- ब्राह्मी, वैष्णवी,माहेश्वरी, कौमारी, ऐन्द्री,वाराही, नारसिंही,चामुंडा आठ लक्ष्मी-आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी

आठ वसु- अप (अह:/अयज), ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्युष, प्रभास।

आठ सिद्धि- अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व।
अष्टधातु- सोना, चांदी, तांबा, सीसा जस्ता, टिन, लोहा, पारा।

नौ (9) का महत्व:

नवदुर्गा- शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री।

नवग्रह- सुर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु।
नवरत्न- माणिक्य, मुक्ताफल, विद्रुमः, मरातक, पुपराज, वज्र, नील, गोमेडा, वैद्योर्य:।

नवनिधि- पद्मनिधि, महापद्मनिधि, नीलनिधि, मुकुंदनिधि, नंदनिधि, मकरनिधि, कच्छपनिधि, शंखनिधि, खर्व/मिश्र निधि।

दस (10) का महत्व:

दस महाविद्या- काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्तिका, धूमावती,बगलामुखी, मातंगी, कमला 

दस दिशाएं- पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैॠत्य, वायव्य, ईशान, आकाश,
पाताल

दस दिक्पाल- इन्द्र, अग्नि, यमराज, नैॠिति, वरुण, वायुदेव, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा, अनंत।

दस अवतार (विष्णुजी)- मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।

दस सती- सावित्री, अनुसुइया, मंदोदरी, तुलसी, द्रौपदी, गांधारी, सीता, दमयन्ती, सुलक्षणा, अरुंधती

11 का महत्व- ग्यारह रुद्र या एकादश रुद्र शिवपुराण में एकादश रुद्र के नाम
कपाली, पिंगल, भीम, विरुपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, अहिर्बुध्न्य, शम्भु, चण्ड, और भव । 
बारह (12) आदित्य:- विवस्वान्, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इंद्र और त्रिविक्रम (भगवान वामन)
12 राशियाँ भी होती हैं
12 स्वामी ग्रह भी होते हैं
बहुसम्यक् व्याख्यायितं भवत्या महोदये 
पठतु संस्कृतम् वदतु संस्कृतम् जयतु भारतम्

Tuesday, October 4, 2022

तेजोमहालय।

तेजोमहालय।
इतिहास में पढ़ाया जाता है कि ताजमहल का निर्माण कार्य 1632 में शुरू और लगभग 1653 में इसका निर्माण कार्य पूर्ण हुआ। अब सोचिए कि जब मुमताज का इंतकाल 1631 में हुआ तो फिर कैसे उन्हें 1631 में ही ताजमहल में दफना दिया गया, जबकि ताजमहल तो 1632 में बनना शुरू हुआ था।
यह सब मनगढ़ंत बातें हैं जो अंग्रेज और मुस्लिम इतिहासकारों ने 18वीं सदी में लिखी।

दरअसल 1632 में हिन्दू मंदिर को इस्लामिक लुक देने का कार्य शुरू हुआ। 1649 में इसका मुख्य द्वार बना जिस पर कुरान की आयतें तराशी गईं। इस मुख्य द्वार के ऊपर हिन्दू शैली का छोटे गुम्बद के आकार का मंडप है और अत्यंत भव्य प्रतीत होता है। आस पास मीनारें खड़ी की गई और फिर सामने स्थित फव्वारे को फिर से बनाया गया।

जे ए माॅण्डेलस्लो ने मुमताज की मृत्यु के 7 वर्ष पश्चात Voyages and Travels into the East Indies नाम से निजी पर्यटन के संस्मरणों में आगरे का तो उल्लेख किया गया है किंतु ताजमहल के निर्माण का कोई उल्लेख नहीं किया। 

टाॅम्हरनिए के कथन के अनुसार 20 हजार मजदूर यदि 22 वर्ष तक ताजमहल का निर्माण करते रहते तो माॅण्डेलस्लो भी उस विशाल निर्माण कार्य का उल्लेख अवश्य करता।
ताज के नदी के तरफ के दरवाजे के लकड़ी के एक टुकड़े की एक अमेरिकन प्रयोगशाला में की गई कार्बन जांच से पता चला है कि लकड़ी का वो टुकड़ा शाहजहां के काल से 300 वर्ष पहले का है, क्योंकि ताज के दरवाजों को 11वीं सदी से ही मुस्लिम आक्रामकों द्वारा कई बार तोड़कर खोला गया है और फिर से बंद करने के लिए दूसरे दरवाजे भी लगाए गए हैं।
ताज और भी पुराना हो सकता है। असल में ताज को सन् 1115 में अर्थात शाहजहां के समय से लगभग 500 वर्ष पूर्व बनवाया गया था।

ताजमहल के गुम्बद पर जो अष्टधातु का कलश खड़ा है वह त्रिशूल आकार का पूर्ण कुंभ है।
उसके मध्य दंड के शिखर पर नारियल की आकृति बनी है।
नारियल के तले दो झुके हुए आम के पत्ते और उसके नीचे कलश दर्शाया गया है। उस चंद्राकार के दो नोक और उनके बीचोबीच नारियल का शिखर मिलाकर त्रिशूल का आकार बना है।
हिन्दू और बौद्ध मंदिरों पर ऐसे ही कलश बने होते हैं। कब्र के ऊपर गुंबद के मध्य से अष्टधातु की एक जंजीर लटक रही है। शिवलिंग पर जल सिंचन करने वाला सुवर्ण कलश इसी जंजीर पर टंगा रहता था।उसे निकालकर जब शाहजहां के खजाने में जमा करा दिया गया तो वह जंजीर लटकी रह गई।
उस पर लाॅर्ड कर्जन ने एक दीप लटकवा दिया, जो आज भी है।

कब्रगाह को महल क्यों कहा गया? मकबरे को महल क्यों कहा गया? क्या किसी ने इस पर कभी सोचा, क्योंकि पहले से ही निर्मित एक महल को कब्रगाह में बदल दिया गया। कब्रगाह में बदलते वक्त उसका नाम नहीं बदला गया।
यहीं पर शाहजहां से गलती हो गई। उस काल के किसी भी सरकारी या शाही दस्तावेज एवं अखबार आदि में ‘ताजमहल’ शब्द का उल्लेख नहीं आया है। ताजमहल को ताज-ए-महल समझना हास्यास्पद है।
‘महल’ शब्द मुस्लिम शब्द नहीं है। अरब, ईरान, अफगानिस्तान आदि जगह पर एक भी ऐसी मस्जिद या कब्र नहीं है जिसके बाद महल लगाया गया हो। 

यह भी गलत है कि मुमताज के कारण इसका नाम मुमताज महल पड़ा, क्योंकि उनकी बेगम का नाम था मुमता उल।जमानी।
यदि मुमताज के नाम पर इसका नाम रखा होता तो ताजमहल के आगे से मुम को हटा देने का कोई औचित्य नजर नहीं आता।

विंसेंट स्मिथ अपनी पुस्तक 'Akbar the Great Moghul' में लिखते हैं, बाबर ने सन् 1530 में आगरा के वाटिका वाले महल में अपने उपद्रवी जीवन से मुक्ति पाई।
वाटिका वाला वो महल यही ताजमहल था। यह इतना विशाल और भव्य था कि इसके जितना दूसरा कोई भारत में महल नहीं था। बाबर की पुत्री गुलबदन ‘हुमायूंनामा’ नामक अपने ऐतिहासिक वृत्तांत में ताज का संदर्भ ‘रहस्य महल’ (Mystic House) के नाम से देती है।
ताजमहल का निर्माण राजा परमर्दिदेव के शासनकाल में 1155 अश्विन शुक्ल पंचमी, रविवार को हुआ था। अतः बाद में मुहम्मद गौरी सहित कई मुस्लिम आक्रांताओं ने ताजमहल के द्वार आदि को तोड़कर उसको लूटा। यह महल आज के ताजमहल से कई गुना ज्यादा बड़ा था और इसके तीन गुम्बद हुआ करते थे।
हिन्दुओं ने उसे फिर से मरम्मत करके बनवाया, लेकिन वे ज्यादा समय तक इस महल की रक्षा नहीं कर सके।
          
वास्तुकला के विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र नामक प्रसिद्ध ग्रंथ में शिवलिंगों में ‘तेज-लिंग’ का वर्णन आता है।
ताजमहल में ‘तेज-लिंग’ प्रतिष्ठित था इसीलिए उसका नाम ‘तेजोमहालय’ पड़ा था। 

शाहजहां के समय यूरोपीय देशों से आने वाले कई लोगों ने भवन का उल्लेख ‘ताज-ए-महल’ के नाम से किया है, जो कि उसके शिव मंदिर वाले परंपरागत संस्कृत नाम ‘तेजोमहालय’ से मेल खाता है।

इसके विरुद्ध शाहजहां और औरंगजेब ने बड़ी सावधानी के साथ संस्कृत से मेल खाते इस शब्द का कहीं पर भी प्रयोग न करते हुए उसके स्थान पर पवित्र मकबरा शब्द का ही प्रयोग किया है।

ओक के अनुसार अनुसार हुमायूं, अकबर, मुमताज, एतमातुद्दौला और सफदरजंग जैसे सारे शाही और दरबारी लोगों को हिन्दू महलों या मंदिरों में दफनाया गया है।

ताजमहल तेजोमहल शिव मंदिर है - इस बात को स्वीकारना ही होगा कि ताजमहल के पहले से बने ताज के भीतर मुमताज की लाश दफनाई गई!

न कि लाश दफनाने के बाद उसके ऊपर ताज का निर्माण किया गया। ‘ताजमहल’ शिव मंदिर को इंगित करने वाले शब्द ‘तेजोमहालय’ शब्द का अपभ्रंश है। तेजोमहालय मंदिर में अग्रेश्वरमहादेव प्रतिष्ठित थे। देखने वालों ने अवलोकन किया होगा न कि लाश दफनाने के बाद उसके ऊपर ताज का निर्माण किया गया। ‘ताजमहल’ शिव मंदिर को इंगित करने वाले शब्द ‘तेजोमहालय’ शब्द का अपभ्रंश है। तेजोमहालय मंदिर में अग्रेश्वरमहादेव प्रतिष्ठित थे। देखने वालों ने अवलोकन किया होगा कि तहखाने के अंदर कब्र वाले कमरे में केवल सफेद संगमरमर के पत्थर लगे हैं जबकि अटारी व कब्रों वाले कमरे में पुष्प लता आदि से चित्रित चित्रकारी की गई है। 

इससे साफ जाहिर होता है कि मुमताज के मकबरे वाला कमरा ही शिव मंदिर का गर्भगृह है।

संगमरमर की जाली में 108 कलश चित्रित उसके ऊपर 108 कलश आरूढ़ हैं, हिन्दू मंदिर परंपरा में 108 की संख्या को पवित्र माना जाता है।

तेजोमहालय उर्फ ताजमहल को नागनाथेश्वर के नाम से जाना जाता था, क्योंकि उसके जलहरी को नाग के द्वारा लपेटा हुआ जैसा बनाया गया था। यह मंदिर विशालकाय महल क्षेत्र में था। आगरा को प्राचीनकाल में अंगिरा कहते थे, क्योंकि यह ऋषि अंगिरा की तपोभूमि थी। अंगिरा ऋषि भगवान शिव के उपासक थे।

बहुत प्राचीन काल से ही आगरा में 5 शिव मंदिर बने थे। यहां के निवासी सदियों से इन 5 शिव मंदिरों में जाकर दर्शन व पूजन करते थे। 

लेकिन अब कुछ सदियों से बालकेश्वर, पृथ्वीनाथ, कैलाश और राजराजेश्वर नामक केवल 4 ही शिव मंदिर शेष हैं। 5वें शिव मंदिर को सदियों पूर्व कब्र में बदल दिया गया।

स्पष्टतः वह 5वां शिव मंदिर आगरा के इष्टदेव नागराज।अग्रेश्वर।महादेव।नागनाथेश्वर ही हैं, जो कि तेजोमहालय मंदिर उर्फ ताजमहल में प्रतिष्ठित थे।
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शून्य का रहस्य

रावण के 10 सिर त्रेतायुग में और महाभारत काल (द्वापर) मे कौरव 100 भाइयों की गणना कैसे हुई थी?

जबकि ‘0’ की खोज आर्यभट्ट ने कलयुग में की थी?

कुछ लोग हिंदू धर्म व "रामायण" "महाभारत" "गीता" को काल्पनिक दिखाने के लिए यह प्रश्न कई बार उठाते है कि जब आर्यभट ने
लगभग 5 वीं शताब्दी मे ‘0’ (ज़ीरो) की खोज की तो आर्यभट की खोज से लाखों वर्ष पहले रामायण मे रावण के 10 सिर की और महाभारत मे कौरवो की 100 की संख्या की गिनीती कैसे की गई। जबकि उस समय लोग (ज़ीरो ) को जानते ही नही थे,

वे कहते हैं कि जब 05 वीं शताब्दी में आर्यभट्ट ने शून्य का आविष्कार
किया तो, रामायण, महाभारत, इसके बाद ही लिखी गयी होगी!

भारत मे संस्कृत ज्ञात सबसे प्राचीन भाषा है।संस्कृत में गणना के मूल शब्द - शुन्यम, एकः एका एकम,द्वौ दवे, त्रयः त्रीणि, चत्वारः, पंच, षष्ठ, सप्त, अष्ट, नव, दशम, शत, ये सब प्रारम्भ से रहे हैं

(ऋग्वेद,दशम मण्डल, नब्बेवा सूक्त पुरुष सूक्त, पहला मंत्र)

सहस्त्रशीर्षा पुरुष:सहस्राक्षःसहस्रपात् स भूमि सर्वतः स्पृत्वाऽत्यतिष्ठछ्शाङ्गुलम्

जो सहस्रों सिरवाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहस्रों चरणवाले विराट पुरुष हैं, वे सारे ब्रह्मांड को आवृत करके भी दस अंगुल शेष रहते हैं ||१||
ईश उपनिषद यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का उपनिषद है, जो उपनिषदों में प्रथम स्थान रखता है। इसमें दूसरे श्लोक में लिखा है

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत् समाः। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे || 2 ||

यहाँ इस जगत् में सौ वर्ष तक कर्म करते हुए जीने की इच्छा करनी चाहिए
अथर्ववेद में -

“पश्येम शरदः शतम्” हम सौ शरदों तक देखें, यानी सौ वर्षों तक हमारे आंखों की ज्योति स्पष्ट बनी रहे (अथर्ववेद, काण्ड १९, सूक्त ६७)

आर्यभट्ट ने “आर्यभटीय”(सङ्ख्यास्थाननिरूपणम्) में कहा है

एकं च दश च शतं च सहस्रं तु अयुतनियुते तथा प्रयुतम् कोट्यर्बुदं च वृन्दं स्थानात्स्थानं दशगुणं स्यात् ॥ २ ॥

अर्थात् “एक, दश, शत, सहस्र, अयुत, नियुत, प्रयुत, कोटि, अर्बुद तथा बृन्द में प्रत्येक पिछले स्थान वाले से अगले स्थान वाला दस गुना है।

इसका अर्थ है कि भारत मे गणना के अंक “शब्दों” में थे।
बाद में अलग अलग समय पर इन शब्दों के लिए प्रतीकों से “गणना” किया गया।

तो जब “शब्द” थे, तो रावण के दस सिर व कौरव के सौ पुत्र निश्चित रूप से गिने गए होंगे और रामायण महाभारत आर्य भट्ट से बहुत पहले लिखा गया होगा। हाँ उस समय शून्य “अंक” के रूप में नहीं रहा होगा।
शून्य का मतलब ‘ब्रह्म' होता है। आर्य भट्ट ने शून्य का “आविष्कार नहीं”, शून्य पर आधारित “दाशमिक प्रणाली” दी थी

आर्य भट्ट के शून्य की बात, भारतीय शून्य के का “व्यावहारिक प्रयोग” से है

मतलब एक शक्ति जो दाहिनी ओर आ जाये तो वो शक्ति कई गुनी हो जाए, बाई ओर चली जाय तो निशक्त की स्थिति इसी ब्रह्म रूप को “गोलाकार शून्य” प्रतीक में लाया गया और इस प्रकार भारतीय आर्यभट्ट नामक ब्राह्मण ने विश्व में व्याप्त शून्य के विभिन्न गणना के प्रतीकों को समाप्त कर “गणितीय” रूप दिया ।

उक्त से स्पष्ट हो जाता है कि जो विवाद हमारे धर्म ग्रंथों को लेकर उछाला जाता है।
वह राजनीतिक द्वेष व सनातन धर्म के प्रति दूषित विचारों से ग्रसित है - ऐसे लोगों के विषय मे भर्तृहरि' (महान नीतिकार एवं कवि) ने लिख है कि इन्हें ब्रह्मा भी नहीं समझा सकते।
सौजन्य से - erblogs.navbharattimes.indiatimes.com